23 साल के युवा राज्य की संघर्ष भरी कहानी
उत्तराखंड राज्य..जो आज देवभूमि के नाम से विश्व में अपनी अलग पहचान बना चुका है। इस पहाड़ी राज्य को पाने के लिए आंदोलनकारियों ने लंबा संघर्ष किया था।
उत्तराखंड ने आज अपनी स्थापना के 23 साल पूरे कर लिए है और अपने 24वें साल में प्रवेश कर रहा है। 9 नवंबर 2000 को अस्तित्व में आया उत्तराखंड राज्य को पाने के लिए प्रदेशवासियों को लंबे संघर्ष का एक दौर देखना पड़ा था। हालांकि मांग दशकों पुरानी थी, लेकिन संघर्ष काफी मुश्किल था। इसके लिए कई आंदोलन, कई मार्च हुए, लोगों ने लाठियां गोलियां खाई, कई यातनाएं झेली और 42 शहादत देनी पड़ी, अनगिनत घायल हुए और इन तमाम संघर्षों की बदौलत फिर उत्तराखंड राज्य मिला। इतना ही नहीं उस समय राज्य को पाने का जुनून इतना था कि क्या पुरुष, क्या महिलाएं, क्या बुजुर्ग यहां तक की बच्चे तक इसमें कूद पडे थे। तो आईये जानते है क्या है एक अलग राज्य बनने का इतिहास और कब क्या रहा खास…..
पहली बार पहाड़ी क्षेत्र की तरफ से हुई थी मांग
उत्तराखंड राज्य पाने के लिए आंदोलनकारियों ने लंबा संघर्ष किया था। दरअसल 9 नवबर 2000 को जन्मा युवा उत्तराखंड इससे पहले उत्तर प्रदेश का हिस्सा हुआ करता था। अलग मुद्दे, अलग समस्याओं ने समय-समय पर इसके अलग राज्य बनाने की मांग को उठाया। लेकिन 1897 में पहली बार इसकी मांग पहाड़ी क्षेत्र की तरफ से ही हुई थी। उस दौरान पहाड़ी क्षेत्र के लोगों ने तत्कालीन महारानी को एक संदेश भेजकर इस क्षेत्र के सांस्कृतिक और पर्यावरणीय आवश्यकताओं के अनुरूप एक अलग पहाड़ी राज्य बनाने की मांग की थी। फिर साल 1923 में जब उत्तर प्रदेश संयुक्त प्रांत का हिस्सा हुआ करता था उस दौरान संयुक्त प्रांत के राज्यपाल को भी अलग पहाड़ी राज्य बनाने की मांग को लेकर ज्ञापन भेजा गया। जिससे कि पहाड़ की आवाज को सबके सामने रखा जाए।
1928 में कांग्रेस के मंच पर रखी गई थी मांग
इसके बाद साल 1928 में कांग्रेस के मंच पर अलग पहाड़ी राज्य बनने की मांग रखी गयी थी। यही नहीं साल 1938 में श्रीनगर गढ़वाल में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में शामिल हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी अलग पहाड़ी राज्य बनाने का समर्थन किया था। इसके बाद भी जब अलग राज्य नहीं बना तो साल 1946 में कुमाऊं के बद्रीदत्त पांडेय ने एक अलग प्रशासनिक इकाई के रूप में गठन की मांग की थी।
1979 में उत्तराखंड क्रांति दल का गठन
साल 1950 से हिमाचल प्रदेश के साथ मिलकर ‘पर्वतीय जन विकास समिति’ के माध्यम से संघर्ष शुरू हुआ। इसके बाद साल 1979 में अलग पहाड़ी राज्य की मांग को लेकर क्षेत्रीय पार्टी उत्तराखंड क्रांति दल का गठन हुआ। जिसके बाद पहाड़ी राज्य बनाने की मांग ने तूल पकड़ा और संघर्ष तेज हो गया। फिर साल 1994 आते आते उत्तराखण्ड आन्दोलन अपने चरम पर पहुंच गया। उस समय खटीमा मसूरी गोलीकाण्डों ने इस आन्दोलन में आग में घी का काम किया।
खटीमा मसूरी गोलीकाण्डों ने किय़ा आग में घी का काम
1 सितंबर 1994 को जब खटीमा में आंदोलनकारिय़ों पर गोलियां बरसाई गई। तो इसके विरोध में अगले दिन 2 सितंबर को मसूरी में जुलूस निकाला गया। सब कुछ शांति से चल रहा था, कही कोई हिंसा नहीं थी, लेकिन पुलिस ने अचानक आकर अंधाधुन फायरिंग कर दी। जिसमें 6 आंदोलनकारी शहीद हो गए। मसूरी घटना के बाद उत्तराखंड के लोगों में आंशिक वेदना और गुस्से की लहर फूट पड़ी और दशकों से सुलग रही असन्तोष की आग जबरदस्त दवानल में बदल गई। सम्पूर्ण गढ़वाल और कुमाऊ अलग राज्य की मांग के लिए आंदोलन में कूद पड़ा।
रामपुर तिराहा काण्ड ने दी राज्य आंदोलन को धार
इसी के बाद रामपुर तिराहा काण्ड हुआ जो इतिहास में काले अध्याय के रुप में छप गया। घटना 2 अक्टूबर 1994 की है जब कई आंदोलनकारी दिल्ली कूच कर रहे थे। उनका मकसद वहीं था- उत्तराखंड को अलग राज्य बनाना, लेकिन आंदोलनकारियों को मुजफ्फरपुर के रामपुर तिराहा पर रोक लिया गया। तब पुलिस की तरफ से निहत्थे लोगों पर अंधाधुन फायरिंग हुई। लाठियां भांजी गई। देखते ही देखते 7 आंदोलनकारी शहीद हो गए और महिलाओं के साथ भी बर्बरता की गई। इसके बाद अलग राज्य की मांग ने और जोर पकडा। कई कुर्बानियों और तमाम संघर्षों की बदौलत आखिरकार 9 नवंबर 2000 को भारत के 27 वें राज्य के तौर पर उत्तराखंड का गठन हुआ।
उत्तरांचल से हुआ उत्तराखंड
गठन के बाद इसे उत्तरांचल नाम दिया गया था और साल 2000 से 2006 तक इसे उत्तरांचल के नाम से पुकारा जाता था, लेकिन जनवरी 2007 में स्थानीय लोगों की भावनाओं का सम्मान करते हुए इसका आधिकारिक नाम बदलकर उत्तराखंड कर दिया गया। इस पहाड़ी राज्य को बनाने में कई बड़े नेताओं और राज्य आंदोलनकारियों ने अपना अहम योगदान दिया है। जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता है।